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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २९ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि अर्थ अर्थात् विषयों को सामान्य रूप से जानना अर्थावग्रह है । इसके छ: भेद हैं: (१) श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह, (२) चतुरिन्द्रिय अर्थावग्रह, (३) घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, (४) रसनेन्द्रिय अर्थावग्रह, (५) स्पर्शने - न्द्रिय अर्थावग्रह, (६) नोइन्द्रिय (मन) अर्थावग्रह | रूपादि विशेष की अपेक्षा किए बिना केवल सामान्य अर्थ . को ग्रहण करने वाला अर्थावग्रह पाँच इन्द्रिय और मन से होता है इसलिए इसके उपरोक्त छः भेद हो जाते हैं । अर्थावग्रह के समान हा अवाय और धारणा भी ऊपर लिखे अनुसार पाँच इन्द्रिय और मन द्वारा होते हैं । इसलिए इनके भी छ: छ: भेद जानने चाहिएं। ( नंदी सूत्र, सूत्र ३० ) ( ठा० ६ सूत्र ५२४ ) ( तत्त्वार्थाधिगम सूत्र प्रथम अध्याय) ४३० -- अवसर्पिणी काल के छः आरे जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः हीन होते जायँ, आयु और अवगाहना घटते जायँ तथा उत्थान, कर्म वल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम का ह्रास होता जाय वह अवसर्पिणी काल है । इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हीन होते जाते हैं। शुभ भाव घटते जाते हैं और अशुभ भाव बढ़ते जाते हैं । अवसर्पिणी काल दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है । अवसर्पिणी काल के छः विभाग हैं, जिन्हें आरे कहते हैं । वे इस प्रकार हैं: – (१) सुषम सुषमा, (२) सुषमा, (३) सुषम दुषमा, (४) दुषम सुषमा, (५) दुषमा (६) दुषम दुषमा । (१) सुषमसुषमा - यह आरा चार कोड़ाकोड़ी सागरोपम का
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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