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________________ २२ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला समय हैं, उतनी बार यदि कोई जीव सातवीं नरक में तेतीस सागरोपम की आयुष्य वाला होकर छेदन भेदनादि असह्य दुःख सहे तो उसको होने वाले दुःखों से अनन्तगुणा दुःख निगोद के जीव को एक ही समय में होता है। अथवा मनुष्य के शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम हैं,पत्येक रोम में यदि कोई देवता लोहे की खूब गरम की हुई सुई घुसेड़ दे, उस समय उस मनुष्य को जितना दुःख होता है, उससे अनन्तगुणा दुःख निगोद में है। निगोद का कारण अज्ञान है। भव्य.पुरुषों को चाहिये कि वे ऐसे दुःखों का नाश करने के लिये ज्ञान का आदर करें और अज्ञान को त्याग दें। (५) सत्व-उत्पाद (उत्पत्ति), व्यय और ध्रु वपना (स्थिरता) सत्व का लक्षण है। तत्त्वार्थमूत्र में कहा है "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" । ये छहों द्रव्य प्रत्येक समय उत्पन्न होते हैं, विनाश को प्राप्त होते हैं और किसी रूप से स्थिर भी हैं, इसलिए सत् हैं। जैसे धर्मास्तिकाय के किसी एक प्रदेश में अगुरुलघु पर्याय असंख्यात हैं, दूसरे प्रदेश में अनन्त हैं, तीसरे में संख्यात हैं । इस तरह सब प्रदेशों में उसका अगुरुलघु पर्याय घटता या बढ़ता रहता है । यह अगुरुलघु पर्याय चल है। जिस प्रदेश में वह एक समय असंख्यात है उसी प्रदेश में दूसरे समय अनन्त हो जाता है । जहां अनन्त है वहां असंख्यात हो जाता है । इस प्रकार धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेशों में अगुरुलघु पर्याय घटता बढता रहता है। जिस प्रदेश में वह असंख्यात से अनन्त होता है उस प्रदेश में असंख्यातपना नष्ट हुआ, अनन्तपना उत्पन्न हुआ और दोनों अवस्थाओं में अगुरुलघुपना ध्रुव अर्थात्
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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