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________________ 424 श्रीसेठिया जैन प्रन्थमाला किन्तु गुण गुणी का भेद मानकर यहाँ व्याख्यान किया गया है। (7) गुण पर्यायों में भ्य की अनुवृत्ति बतलाने वाला अन्वय द्रव्यार्थिक है / जैसे-- द्रव्य गुण पर्याय रूप है। (8) जो खद्रव्य- वक्षेत्र, स्वकाल स्वभाव की अपेक्षा से द्रव्य को सत्रूप से ग्रहण करता है उसे स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक कहते हैं / जैसे स्वचतुष्टय की अपेक्षा द्रव्य है। (8) पर चतुष्टय की अपेक्षा द्रव्य को असत् रूप ग्रहण करने वाला परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक है। जैसे-पर चतुष्टय की अपेक्षा द्रव्य नहीं है। (10) जो परम भाव को ग्रहण करने वाला नय है उसे परम भावग्राहक द्रव्यार्थिक नय कहते हैं। जैसे आत्मा- ज्ञान रूप है। व्यवहार नय के भेद व्यवहार नय के दो भेद हैं। सद्भूत व्यवहार नय, असद्भूत व्यवहार नय। एक वस्तु में भेद को विषय करने वाला सद्भुत व्यवहार नय है। इसके भी दो भेद हैं, उपचरित सद्भूत व्यवहार नय, अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय / सोपाधि गुण गुणी में भेद ग्रहण करने वाला सद्भूत व्यवहार नय / निरुपाधि गुण गुणी में भेद ग्रहण करने वाला अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय है। जैसे जीव कामतिज्ञान इत्यादि लोक में व्यवहार होता है। इस व्यवहार में उपाधि रूप कर्म के आवरण से कलुषित आत्मा का मल सहित ज्ञान होने से जीव का मतिज्ञान सोपाधिक होने से उपचरित सद्भूत व्यवहार नामक प्रथम भेद है। निरुपाधि गुण गुणी के भेद को ग्रहण करने वाला अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय है अर्थात् उपाधि रहित गुण के साथ उपाधिशून्य आत्मा जब संपन्न होता है तब अनुपाधिक गुण गुणी के भेद से भिन्न अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय सिद्ध
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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