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________________ 420 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला को उपनय भी कहते हैं। जो वस्तु के असली स्वरूप को बतलाता है उसे निश्चय नय कहते हैं। जो दूसरे पदार्थों के निमित्त से उसे अन्यरूप बतलाता है उसे व्यवहार नय कहते हैं। __ यद्यपि व्यवहार वस्तु के स्वरूप को दूसरे रूप में बतलाता है परन्तु वह मिथ्या नहीं है क्योंकि जिस अपेक्षा से जिस रूप में वह वस्तु को विषय करता है उस रूप में वस्तु पाई जाती है। जैसे-- हम कहते हैं 'घी का घड़ा' इस वाक्य से वस्तु के असली स्वरूप का ज्ञान तो नहीं होता अर्थात् यह नहीं मालूम होता कि घड़ा मिट्टी का है, पीतल का या टीन का ? इसलिए इसे निश्चय नय नहीं कह सकते लेकिन इससे इतना अवश्य मालूम होता है कि उस घड़े में घी रक्खा जाता है। जिसमें घी रक्खा जाता हो ऐसे घड़े को व्यवहार में घी का घड़ा कहते हैं। इसलिए यह बात व्यवहार से सत्य है और इसी से व्यवहार नय भी सत्य है। व्यवहारनय मिथ्या तभी हो सकता है जब कि उसका विषय निश्चय का विषय मान लिया जाय अर्थात् कोई मनुष्य घी के घड़े का अर्थ घी से बना हुआ घड़ा समझे / जब तक व्यवहार नय अपने व्यवहारिक सत्य पर कायम है तब तक उसे मिथ्या नहीं कह सकते। 'निश्चय नय के दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकाद्रव्य अर्थात् सामान्य को विषय करने वाले नय को द्रव्यार्थिक नय / कहते हैं / पर्याय अर्थात् विशेष को विषय करने वाले नय को पर्यायार्थिक नय कहते हैं / द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार। पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं- ऋजुसूत्र,शब्द, समभिरूढ और एवंभूत। श्री जिनभद्रगणि को अनुसरण करने वाले सैद्धान्तिक द्रव्यार्थिक के चार भेद मानते हैं और पर्यायार्थिक * के तीन / परन्तु सिद्धसेन आदि तार्किकों के मत को मानने वाले
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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