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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 395 नियत होता है उसी तरह यहाँ शक्तिक्रिया से प्रत्याख्यान की अवधि निश्चत की गई। इसे मान लेने पर अपरिमाण पक्ष की हानि होती है, क्योंकि शक्ति रूप क्रिया से अनुमित काल यहाँ मान ही लिया गया है। आशंसा दोष तुमने जी हमारे पक्ष में दिया था, वह तुम्हारे पक्ष में भी समान है / शक्ति के बाद इस वस्तु का सेवन करूँगा इस तरह की आशंसा यहाँ भी हो सकती है। ___ यथाशक्ति रूप अपरिमाण त्याग मान लेने से जीवित पुरुष के सब भोग भोगते हुए भी कोई दोष न लगेगा। हरएक बात में वह कह सकता है, मेरी शक्ति इतनी ही है। मेरा त्याग पूरा हो गया। अब कुछ भी करने पर वह न टूटेगा / इस तरह व्रतों को इच्छा पर चलाना जिनशासन के विरुद्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को 'मेरी इतनी ही शक्ति थी' इस बात का सहारा मिल जायगा / व्रतों की अव्यस्था हो जायगी / इच्छा होने परशक्ति का सहारा लेकर वह मनचाही बात कर लेगा और फिर भी कहेगा मेरे व्रत हैं। बारबार सेवन करेगा और व्रती भी बना रहेगा। व्रतों के अतिचार, उनके होने पर प्रायश्चित्त, एक व्रत के भङ्ग होने पर सारे व्रतों का भङ्ग होना आदिमागमोक्त बातें व्यर्थ हो जायँगी / इसलिए यथाशक्ति वाला पक्ष ठीक नहीं है। भविष्य में सदा के लिए होने वाला नियम अपरिमाण है। यह दसरापक्ष भी ठीक नहीं है। इस प्रकार कोई संयमी स्वर्ग में जाकर भोग भोगने से भग्नवत वाला हो जायगा, क्योंकि उसका व्रत सदा के लिये है। दूसरे भव में जाकर भी भोग भोगने से व्रत का टूटना मानना पड़ेगा। इस प्रकार सिद्ध भी संयत गिने जायेंगे, क्योंकि सदा के लिए किये गये प्रत्याख्यान के काल में वे भी आजाते हैं। जैसे यावज्जीवन त्याग करने वाले साधु का जीवन काल। सिद्ध को संयत मानने से आगमविरोध होता है, क्योंकि शास्त्र में
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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