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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भोग या निर्जरा के द्वारा जीव से अलग हो गया वह फिर कर्म नहीं रहता, क्योंकि उसमें सुख दुःख देने की शक्ति नहीं रहती 'अर्थात् कर्म वर्गणा के परमाणु जब तक आत्मा के साथ सम्बद्ध रहते हैं तभी तक उन्हें कर्म कहा जाता है। तभी तक उन में सुख दुःख देने की शक्ति रहती है। जीव से अलग होते ही आकाश और दूसरे पुद्गल परमाणुओं की तरह उन में फल देने की शक्ति नहीं रहती। इसलिये उस समय उन्हें अकर्म ही कहा जायगा। यह बात उसी सूत्र में आगे का पाठ पढ़ने से स्पष्ट हो जाती है। "नेरइए जाव वेमाणिए जीवाउ चलियं कम्म निज्जरइ' अर्थात् नारकी से लेकर वैमानिक तक के जीवों से जो कर्म चलित हो जाता है वह निर्जीर्ण ही है। इसलिये कहा है “निर्जीयमाण निर्जीर्ण" इत्यादि / और भी अनेक दोष होने से कर्मों का संचरण मानना ठीक नहीं है। उसे शरीर के मध्य में भी स्थित मानना चाहिए। इसी बात को प्रमाण से सिद्ध करते हैं / शरीर के मध्य में भी कर्म रहता है / क्योंकि वेदना होती है / जहाँ वेदना होती है वहाँ कर्म अवश्य रहता है। जैसे त्वचा पर। शरीर के मध्य में भी वेदना होती है। इसलिए वहाँ कर्म रहता है। ___ दूसरी बात यह है-- कर्मों को बंध मिथ्यात्वादि के कारण होता है और मिथ्यात्वादि जिस तरह जीव के बाह्य प्रदेशों में रहते हैं उसी तरह मध्य प्रदेशों में भी रहते हैं तथा जिस तरह मध्य प्रदेशों में रहते हैं उसी तरह बाह्य प्रदेशों में भी रहते हैं। मिथ्यात्व आदि समस्त जीव में रहने वाले अध्यवसाय विशेष हैं / इसलिये मिथ्यात्वादि कर्मबन्ध के कारण जब समस्त जीव में रहते हैं तो उनका कार्य कर्मबन्ध भी सभी जगह होगा। अतः अग्नि लोहपिण्ड और क्षीरनीर की तरह जीव के साथ कर्मतादात्म्य सम्बन्ध के साथ रहते हैं, इसी पक्ष को सत्य मानना चाहिये।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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