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________________ भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह को ही जीव मानते हो, कटे हुए एक देश को नहीं मानते तो घटादि का एकदेश भी अजीव नहीं रहेगा। सम्पूर्ण को ही.अजीव कहा जा सकेगा। इस तरह अजीव का देश भी 'नोअजीव कहा जायगा अजीव नहीं। इस प्रकार चार राशियाँ हो जायेंगी।. / अनुयोगद्वार सूत्र के आधार पर जो यह कहा था कि समभिरूढ नय 'नोजीव' को पृथक मानता है, वह भी ठीक नहीं है / जीव से भिन्न जीवप्रदेश को समभिरूढ नय नहीं मानता किन्तु जीव से अभिन्न का ही नोजीव शब्द से व्यवहार करता है क्योंकि समभिरूढ नय देश (जीव का प्रदेश) और देशी (जीव) का कर्मधारय समास मानता है। यह समास विशेषण और विशेष्य का अभेद होने पर ही होता है / जैसे नील कमल / इससे सिद्ध होता है नोजीव राशि जीवराशि से अभिन्न है अर्थात् उसका कोई खतन्त्र अस्तित्व नहीं है / अगरनैगम नय की तरह यहाँ तत्पुरुष समास होता तो भेद हो सकता था। 'यहां तो जीव रूप जो प्रदेश' इस प्रकार कर्मधारय समास है। इसलिए जीव से अभिन्न जीव प्रदेश को ही समभिरूढ नय 'नोजीव' कहता है / जीव को अलग मानकर उसके एक खंड को नोजोव नहीं मानता / जिस प्रकार छिपकली की पूंछ को तुम अलग नोजीव मानते हो। दूसरी बात यह है कि नोजीव को मानता हुआ भी समभिरूढ नय तुम्हारी तरह जीव और अजीव राशि से भिन्न नोजीव राशि को नहीं मानता। दो राशियाँ मानकर तीसरी का उसीमें अन्तर्भाव कर लेता है। नैगमादि नय भी जीव को अलग नहीं मानते / यदि यह मान लिया जाय कि समभिरूढ नय नोजीव को भिन्न मानता है तो भी यह प्रमाण नहीं माना जा सकता क्योंकि इसमें एक नय का अवलंबन किया गया
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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