SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 359 बाद सामुच्छेदिक दृष्टि नाम का चौथा निह्नब हुआ। मिथिला नगरी के लक्ष्मीगृह नामक चैत्य में महागिरिसरी का कौण्डिन्य नामक शिष्य ठहरा हुआ था।कौण्डिन्य का शिष्य अश्वमित्र अनुप्रवाद पूर्व में नैपुणिक नाम के अध्ययन को पढ़ रहा था / छिनच्छेदनक (नय विशेय, प्रत्येक मूत्र को दूसरे सूत्र की अपेक्षा से रहित मानने वाला मत) नय के प्रकरण में उसने नीचे लिखे आशय का पाठ पढ़ा। __'पैदा हुए नारकी के सभी जीव समाप्त हो जायँगेवैमानिक तक सभी समाप्त हो जायँगे / इसी तरह द्वितीयादि क्षणों में भी जानना चाहिए / इस पर उसे सन्देह हुआ कि पैदा होते ही यदि सब जीव नष्ट हो जायँगे तो पुण्य पाप का फलभोग कैसे होगा, क्योंकि जीव तो सभी पैदा होते ही नष्ट हो जायेंगे ? __गुरु ने बहुत सी युक्तियों से समझाया किन्तु उसने अपना आग्रह न छोड़ा। उसे संघ से बाहर कर दिया / अपने मत का उपदेश देता हुआ वह राजगृह नगर चला गया। वहाँ शुल्कपाल का काम करने वाले खण्डरक्षक श्रावकों ने उन्हें निह्नव जानकर मारना शुरु किया / डरे हुए अश्वमित्र तथा उसके साथियों ने कहा-तुम लोग श्रावक हो, हम साधुओं को क्यों मारते हो ? ___ उन्होंने उत्तर दिया- तुम्हारे सिद्धान्त से जिन्होंने दीक्षा ली थी वे तो नष्ट हो चुके / तुम लोग तो चोर हो। इस पर उन लोगों ने अपना आग्रह छोड़ दिया और अपने किए पर पश्चात्ताप करते हुए गुरु की सेवा में चले गये। अश्वमित्र के इस मत में ऋजुसूत्र नय का एकान्त अवलम्बन किया गया है। इस लिए यह मिथ्या है / वस्तु का सर्वथा नाश कभी नहीं होता / नारकादि जीवों में प्रतिक्षण अवस्था बदलते रहने पर भी जीव द्रव्य एक ही बना रहता है / द्रव्य
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy