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________________ श्री जैन सिद्धान्त चोल संग्रह श्वेतक्किा नगरी के पौलापाढ़ चैत्य में आर्यापाढ़ नाम के आचार्य ठहरे हुए थे / उनके बहुत से साधुओं ने भागाढयोग नाम का उग्र तप शुरू किया। दूसरे वाचनाचार्य के न होने से प्राचार्य आर्याषाढ ही वाचनाचार्य बन गए। आयुष्य कर्म समाप्त हो जाने से उसी रात को हृदयशूल द्वारा उन का देहान्त हो गया / मरकर वे सौधर्म देवलोक के नलिनीगुल्म नाम के विमान में पैदा हुए / गच्छ में कोई भी उनकी मृत्यु को न जान सका / अवधिज्ञान द्वारा पुराने सम्बन्ध को जानकर साधुओं पर दया करके वे नीचे आये और उसी शरीर में प्रवेश करके साधुओं को उपदेश करने लगे। उन्होंने कहा रात्रि के तीसरे पहर का कृत्य करो / साधुओं ने वैसा ही किया। फिर आचार्य ने शास्त्र के अनुसार उन्हें उद्देश (उपदेश) समुद्देश (शिक्षा) और अनुज्ञा (उचित कर्तव्य पालन) के लिए आज्ञा दी। इस तरह दैवी प्रभाव से साधुओं को कालविभंगादि विघ्नों से बचाते हुए उनका योग पूरा करवा दिया। ___ तपस्या समाप्त होने पर स्वर्ग में जाते हुए आचार्य ने साधुओं से कहा 'आप लोग मेरा अपराध क्षमा करें, क्योंकि मैंने असंयत देव होकर भी आप संयतों से वन्दना करवाई है। मैं बहुत पहले स्वर्ग में चला गया था।आप पर अनुकम्पा करके यहाँ चला आया। आपका योग पूरा करवा दिया। यह कहते हुए सब से क्षमा मांग कर वे देवलोक में अपने स्थान पर चले गए। इसके बाद उनके शरीर को घेर कर साधु लोग सोचने लगे- हमने बहुत दिनों तक असंयती की वन्दना की / वे दूसरी जगह भी सन्देह करने लगे। संयत कौन है और असंयत कौन है? इसलिए किसी को वन्दना नहीं करनी चाहिए। उन्होंने आपस में वन्दना व्यवहार छोड़ दिया। प्रत्येक स्थान पर सन्देह होने
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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