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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला के भिन्न भिन्न रूप करना)करते हैं । यही बात पन्नवणासूत्र में प्रश्नोत्तर के रूप में दी गई है। (पन्नत्रणा ३४ प्रवीचार पद) __नारकों की विग्रह गति- दूसरे किसी स्थान से नरक गति में उत्पन्न होने वाला जीव अनन्तरोपपन्न, परम्परोपपन्न तथा अनन्तरपरम्परानुपपन्न तीनों प्रकार का होता है । जो जीव ऋजुगति से सीधे एक ही समय में दूसरे स्थान से नरक गति में पहुँच जाते हैं वे अनन्तरोपपन्न हैं। दो तीन चार या पाँच समय में उत्पन्न होने वाले नारक परम्परोपपन्न हैं । जो जीव विग्रहगति को प्राप्त कर उत्पन्न होते हैं वे अनन्तरपरम्परानुपपन्न हैं । ये गतियाँ बहुत ही शीघ्र होती हैं। एक बार पलक गिरने में असंख्यात समय लग जाते हैं, किन्तु नारकों की विग्रह गति में उत्कृष्ट पाँच समय ही लगते हैं। अनन्तरोपपन्न, परम्परोपपन्न और अनन्तरपरम्परानुपपन्न तीनों तरह के नारक और देव नरक गति तथा देव गति का आयुष्य नहीं बाँधते । मनुष्य और तिर्यञ्च दोनों गतियों में जाते हैं। (भगवती शतक १४ उद्देशा १) नारकी जीव दस स्थानों का अनुभव करते हैं । वे इस प्रकार हैं- (१) अनिष्ट शब्द, (२) अनिष्ट रूप, (३) अनिष्ट गन्ध, (४) अनिष्ट रस, (५) अनिष्ट स्पर्श, (६) अनिष्ट गति (अप्रशस्त विहायोगति), (७) अनिष्ट स्थिति (नरक में रहने रूप), (८) अनिष्ट लावण्य, (६) अनिष्ट यशः कीर्ति तथा (१०) अनिष्ट उत्थान, कमें, बल, वीर्य तथा पुरुषाकारपराक्रम । (भगवती शतक १४ उद्देशा ५) आहार योनि तथा कारण- जितने पुद्गल द्रव्यों के समुदाय से पूरा आहार होता है उसे अवीचिद्रव्य कहते हैं तथा सम्पूर्ण आहार से एक या अधिक प्रदेश न्यून आहार को वीचिद्रव्य
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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