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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ३११ आसनों का अभ्यास बताया है। (१) खुली और शुद्ध हवा में सीधा खड़ा हो कर मुँह द्वारा सांस को अन्दर खींचे । सांस खींचते समय हाथों को भी सीधे रखकर धीरे धीरे सिर के ऊपर लेजावे । फिर धीरे २ हाथों को नीचे लाते हुए नाक द्वारा सांस छोड़ दे। यह अभ्यास धीरे धीरे बढा कर इक्कीस दफा करना चाहिए। इस से मुख की कान्ति बढ़ती है तथा शरीर में फुरती आती है । हठयोगदीपिका में इस के बहुत गुण बताए गए हैं। (२) नीचे बैठकर एक पैर की एड़ी से अपने गुह्य भाग को दवावे तथा दूसरे को सीधा रखकर हाथ से पकडे । सांस अन्दर खींचकर पैर को पकड़े और सांस बाहर निकालते हुए छोड़े। यह अभ्यास दाएंऔर बाएं पैर द्वारा बारी बारी से करे। एक एक पैर से सात बार करने से यह अभ्यास पूरा होजाता है। इस से पेट की सब बीमारियां दूर हो जाती हैं । गरिष्ट आहार भी पच जाता है। (३) सीधे लेटकर पैरों को धीरे धीरे ऊपर उठाया जाय। यहां तक कि शरीर का सारा बोझ छाती पर आजाय । इसी अवस्था में पांच मिनट तक रुका रहे। पैर बिलकुल सीधे रक्खे यदि आवश्यकता प्रतीत हो तो सहारे के लिए हाथ कमर से लगा ले। इस आसन से रक्त शुद्धि होती है। मेरुदण्ड अर्थात् रीढ़ की हड्डी के सब विकार दूर हो जाते हैं। इसे ऊर्ध्वसर्वाङ्ग आसन भी कहा जाता है। (४) उल्टा लेटकर शरीर को कड़ा करके धीरे धीरे हाथों के बल ऊपर उठे । उठते समय पैर और हाथों के सिवाय और कोई अङ्ग जमीन से छुआ हुमा न होना चाहिए । इस प्रकार पन्द्रह बीस दफे शक्त्यनुसार करे। यह एक तरह का दण्ड ही है।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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