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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २९९ का स्वभाव यहाँ मालूम नहीं पड़ता । जहाँ घट रहेगा वह आखों से जरूर दिखाई देगा | आँखों का विषय होना उसका स्वभाव है । इसके न होने से घट का अभाव सिद्ध किया जा सकता है। ( २ ) अविरुद्ध व्यापकानुपलब्धि- जहाँ प्रतिषेध्य श्रविरुद्ध व्यापक के न रहने से व्याप्य का अभाव सिद्ध किया जाय । जैसे- इस स्थान पर आम नहीं है, क्योंकि वृक्ष नहीं है। आम का व्यापक है वृक्ष | इसलिए वृक्ष की अनुपलब्धि से आम का प्रतिषेध किया गया । (३) विरुद्ध कार्यानुपलब्धि - जहाँ कार्य के न होने से कारण का अभाव सिद्ध किया जाय । जैसे- यहाँ पूरी शक्ति वाला बीज नहीं है, क्योंकि अंकुर दिखाई नहीं देता । ( ४ ) अविरुद्ध कारणानुपलब्धि- जहाँ कारण के न होने से कार्य का अभाव सिद्ध किया जाय । जैसे- इस व्यक्ति के सम, संवेग आदि भाव नहीं हैं क्योंकि इसे सम्यग्दर्शन नहीं है । सम्यग्दर्शन के कार्य हैं सम संवेग वगैरह । इसलिए सम्यग्दर्शन के न होने से सम संवेग आदि का भी प्रभाव सिद्ध कर दिया गया। (५) अविरुद्ध पूर्व चरानुपलब्धि - जहाँ पूर्वचर की अनुपलब्धि से उत्तरचर का प्रतिषेध किया जाय। जैसे- कल रविवार नहीं है क्योंकि आज शनिवार नहीं है। रविवार का पूर्वचर है शनिवार क्योंकि उसके आये बिना रविवार नहीं आता। इस लिये शनिवार की अनुपलब्धि से यह सिद्ध किया जा सकता है कि कल रविवार नहीं होगा । इसी तरह मुहूर्त के बाद स्वाति का उदय नहीं होगा क्योंकि अभी चित्रा का उदय नहीं है । स्वाति उदय चित्रा के बाद ही होता है। इसलिए चित्रा के उदय न होने से स्वाति के उत्तरकालीन उदय का निषेध किया जा सकता है। (६) अविरुद्ध उत्तरचरानुपलब्धि- जैसे एक मुहूर्त पहिले
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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