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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २८९ कर्म के आश्रित है अर्थात् कोई जीव आयु कर्म अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकाल कर उनसे मुख और उदरादि के छिद्रों और कान एवं स्कन्धादि के अन्तरालों को पूर्ण करके विष्कम्भ (घेरा) और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में कम से कम अपने शरीर के अङ्गुल के असंख्यात भाग परिमाण और अधिक से अधिक एक दिशा में असंख्येय योजन क्षेत्र को व्याप्त करता है और प्रभूत आयु कर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। (४) वैक्रिय समुद्घात वैक्रिय के प्रारम्भ करने पर जोसमुद्घात होता है उसे वैक्रिय समुद्घात कहते हैं और वह वैक्रिय शरीर नाम कर्म के आश्रित होता है अर्थात् वैक्रिय लब्धि वाला जीव वैक्रिय करते समय अपने प्रदेशों को अपने शरीर से बाहर निकाल कर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में संख्येय योजन परिमाण दण्ड निकालता है और पूर्वबद्ध वैक्रिय शरीर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। (५) तैजस समुद्घात- यह तेजो लेश्या निकालते समय में रहने वाले तैजस शरीर नाम के आश्रित है अर्थात् तेजो लेश्या की स्वाभाविक लब्धि वाला कोई साधु आदि सात आठ कदम पीछे हटकर विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में संख्येय योजन परिमाण जीव प्रदेशों के दण्ड को शरीर से बाहर निकाल कर क्रोध के विषयभूत जीवादि को जलाता है और प्रभूत तैजसशरीर नाम कर्म के पुद्गलों की निर्जरा करता है। (६) आहारक समुद्घात-आहारक शरीर का प्रारम्भ करने पर होने वाला समुद्घात आहारक समुद्घात कहलाता है। वह आहारक नामकर्म को विषय करता है अर्थात् आहारक शरीर की लब्धि वाला आहारक शरीर की इच्छा करता हुआ विष्कम्भ और मोटाई में शरीर परिमाण और लम्बाई में संख्येय योजन परिमाण अपने
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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