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________________ भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २८७ वीर्यशक्ति के व्यापार को वैक्रिय काययोग कहते हैं। यह मनुष्यों और तिर्यञ्चों को वैक्रिय लब्धि के बल से वैक्रिय शरीर धारण कर लेने पर होता है । देवों और नारकी जीवों के क्रिय काययोग भवप्रत्यय होता है। (४)वैक्रियमिश्र काययोग-वैक्रिय और कार्माण अथवा वैक्रिय और औदारिक इन दो शरीरों के द्वारा होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को वैक्रियमिश्रयोग कहते हैं। पहिले प्रकार का वैक्रियमिश्र योग देवों तथा नारकों को उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर अपर्याप्त अवस्था तक रहता है । दूसरे प्रकार का वैक्रिय काययोग मनुष्यों और तिर्यश्चों में तभी पाया जाता है जब कि वे लब्धि के सहारे से वैक्रिय शरीर का आरम्भ करते हैं। त्याग करने में वैक्रियमिश्र नहीं होता, औदारिकमिश्र होता है। (५) आहारक काययोग-सिर्फ आहारक शरीर की सहायता से होने वाला वीर्यशक्ति का व्यापार आहारक काययोग है। (६) आहारकमिश्र काययोग- आहारक और औदारिक इन दोनों शरीरों के द्वारा होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को आहारकमिश्र काययोग कहते हैं । आहारक शरीर के धारण करने के समय और उसके आरन्भ और त्याग के समय आहारकमिश्र काययोग होता है। (७) कार्माण काययोग- सिर्फ कार्माण शरीर की सहायता से वीर्य शक्ति की जो प्रवृत्ति होती है, उसे कार्माण काययोग कहते - नोट:- कार्माण काययोग के समान तैजसकाययोग इसलिए अलग नहीं माना गया है कि तैजस और कामागा का सदा साहचर्य रहता है, अर्थात् मौदारिक प्रादि अन्य शरीर कभी कभी कार्माण शरीर को छोड़ भी देते हैं पर तैजस शरीर उसे कभी नहीं छोड़ता। इसलिए वीर्यशक्ति का जो व्यापार कार्माण शरीर द्वारा होता है, वही नियम से तैजस शरीर द्वारा भी होता रहता है । अतः कार्माण काययोग में ही तैजस काययोग का समावेश हो जाता है इसलिए उसको पृथक् नहीं गिना है।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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