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________________ विचाम श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (४) आउत्तं तुयदृणं- सावधानतापूर्वक लेटना। (५) आउत्तं उल्लंघणं- सावधानतापूर्वक उल्लंघन करना। (६)आउत्तं पल्लंघणं-सावधानतापूर्वक बार बार लांघना। (७) आउत्तं सबिदियजोगजुंजणया- सावधानतापूर्वक सभी इन्द्रिय और योगों की प्रवृत्ति करना। (भगकती शतक २५ उद्देशा ७) (ठाणांग सूत्र ५८५) (उववाई सूत्र २०) ५०४- अप्रशस्तकायविनय के सात भेद शरीर को असावधानी से अशुभ व्यापारों में लगाना अप्रशस्तकायविनय है । इसके भी सात भेद हैं(१) अणाउत्तं गमणं- असावधानी से जाना। (२) प्रणाउत्तं ठाणं-असावधानी से ठहरना। (३) अण्णाउत्तं निसीयणं- असावधानी से बैठना । (४) अणाउत्तं तुयदृणं- असावधानी से लेटना। (५) अबाउत्तं उल्लंघणं-असावधानी से उल्लंघन करना। (६) अणाउत्तं पल्लंघणं- असावधानी से इधर उधर बार बार उल्लंघन करना। (७) अणाउत्तं सबिदियजोगजंजणया- असावधानी से सभी इन्द्रिय और योगों की प्रवृत्ति करना। (भगवती शतक २५ उद्देशा ७) (ठाणांग सूत्र ५८५) (उववाई सत्र २०) ५०५- लोकोपचारविनय के सात भेद __ दूसरे को मुख पहुँचाने वाले बाह्य आचार को लोकोपचार विनय कहते हैं। अथवा लोक अर्थात् जनता के उपचार (व्यवहार) कोलोकोपचार विनय कहते हैं। इस के सात भेद हैं(१) अभासवत्तियं- गुरु वगैरह अपने से बड़ों के पास रहना और अभ्यास में प्रेम रखना। (२) परच्छन्दाणुवत्तियं- उनकी इच्छानुसार चलना।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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