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________________ श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह २१५ लिए ज्ञान ही मुख्य रूप से प्रतिपाय है। मीमांसा दर्शन क्रियावादी है। उनके मत में वेदविहित कर्म ही जीवन का मुख्य ध्येय है । वेदविहित कर्मों के अनुष्ठान और निषिद्ध कर्मों को छोड़ने से जीव को स्वर्ग अथवा मुख प्राप्त होता है। अच्छे या बुरे कर्मों के कारण ही जीव सुखी 'या दुखी होता है । कर्मों का विधान या निषेध ही मीमांसा दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य है। जगत् सांख्य दर्शन के अनुसार जगत् प्रकृति का परिणाम है । मुख्य रूप से प्रकृति और पुरुष दो तत्व हैं। पुरुष चेतन, निर्लिप्त निर्गुण तथा कूटस्थ नित्य है । प्रकृति जड़, त्रिगुणात्मिका तथा परिणामिनित्य है। सत्त्व, रजस, और तमस् तीनों गुणों की साम्यावस्था में संसार प्रकृति में लीन रहता है । गुणों में विषमता होने पर प्रकृति से महत्तत्त्व, महत्तत्त्व से अहङ्कार आदि क्रम से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्राएँ, और मन की उत्पत्ति होती है । पाँच तन्मात्राओं से फिर पाँच महाभूत उत्पन्न होते हैं । पाँच महाभूतों से फिर सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि होती है। योग दर्शन का सृष्टिक्रम भी सांख्यदर्शन के समान ही है। इन्हों ने ईश्वर को माना है किन्तु सृष्टि में उसका कोई हस्तक्षेप नहीं होता। __ वैशेषिक दर्शन के अनुसार संसार परमाणु से शुरू होता है। परमाणु से द्वयणुक, तीन द्वयणुकों से त्रसरेणु इसी क्रम से घयदि अवयवी द्रव्य बनते हैं। ये अवयवी द्रव्य ही संसार हैं। द्रव्य, गुण,
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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