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________________ २१२ श्री सेठिया जैन ग्रन्थ माला की स्वरूप को जान सकता है । एकान्त दृष्टि को छोड़ते ही झगड़ों का अन्त और वस्तु का सम्यग्ज्ञान हो जाता है। कर्मवाद जानते हुए अथवा बिना जाने जो मनुष्य कूए की तरफ बढ़ता है वह उसमें अवश्य गिरता है। उसके गिरने और गिरने से होने वाले कष्ट का कारण वह स्वयं है। इसी प्रकार जो व्यक्ति किसी दुखी प्राणी पर दया करता है, दुखी प्राणी उसके भक्त बन जाते हैं, हर तरह से उसकी शुभ कामना करते हैं । इस शुभ कामना, कीर्ति या भक्ति के प्राप्त होने का कारण वह दयालु मनुष्य स्वयं है । इनके लिए किसी बाह्य शक्ति को मानने की आवश्यकता नहीं है । ईश्वर या किसी दूसरी बाह्य शक्ति के हाथ में अपने भाग्य को सौंप देने से मनुष्य अकर्मण्य बन जाता है । वह यह समझने लगता है कि ईश्वर जो कुछ करेगा वही होगा, मनुष्य कुछ नहीं कर सकता। जैन दर्शन का कर्मवाद इस अकर्मण्यता को दूर करता है । वह कहता है अच्छे या बुरे अपने भाग्य का निर्माता पुरुष स्वयं है। पुरुष अपने आप ही सुखी और दुखो बनता है। उत्तराध्ययन के २०वें अध्ययन में पाया है अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदणं वणं ॥ अप्पाकत्ताविकत्ता य दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपहिरो॥ अर्थात्-- आत्मा ही वैतरणी नदी और कूट शाल्मली वृक्ष के समान दुःखदायी है और आत्मा ही कामधेनु तथा नन्दन
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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