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________________ २०८ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला के कर्मों का अत्यन्त नाश हो जाने के कारण वे फिर संसार में नहीं आते। मुक्ति को प्राप्त करना ही जैनधर्म का अन्तिम लक्ष्य है। जैन साधु जैन दर्शन में भावों को प्रधानता दी गई है। जाति, कुल वेष या बाह्य क्रियाकाण्ड को विशेष महत्त्व नहीं दिया गया। जिस व्यक्ति के भाव पवित्र हैं, वह किसी जाति, किसी सम्प्रदाय या किसी वेष वाला हो उसके लिए धर्म और मोक्ष का द्वार खुला है। फिर भी पवित्र भावों की रक्षा के लिए जैनदर्शन में साधु तथा श्रावकों के लिए बाह्य नियम भी वताए हैं। जैन साधु जीव रक्षा के लिए मुग्ववत्रिका और रजोहरण तथा भिक्षा के लिए काठ या मिट्टी के पात्र रखते हैं। अपरिग्रह व्रत का पालन करने के लिए वे सोना चाँदी लोहा आदि कोई धातु, उस से बनी हुई कोई वस्तु या रुपया पैसा नोट आदि कुछ भी अपने पास नहीं रखते । आवश्यकता पड़ने पर मई वगैरह अगर गृहस्थ के घर से लाते हैं तो कार्य होते ही या मूर्यास्त होने से पहले पहले उसे वापिस कर देते हैं। धर्माराधना तथा शरीरनिर्वाह के लिए जैन साधु जितने उपकरण रख सकते हैं उनकी मर्यादा निश्चित है। वे तीन भिक्षापात्र और एक मात्रक (पड़मा) के सिवाय पात्र तथा ७२ हाथ से अधिक वस्त्र अपने पास नहीं रख सकते । इस ७२ हाथ में ओढ़ने, विद्याने, पहिनने आदि सब प्रकार के वस्त्र सम्मिलित हैं। साध्वियाँ अधिक से अधिक ६६ हाथ कपड़ा रख सकती हैं। जीवहिंसा से बचने धर्माराधन तथा ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए सूर्यास्त के बाद न कुछ खाते हैं, न पीते हैं, न ऐसी कोई
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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