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________________ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला निर्जरा कर्मों का नाश करने के लिए दो बातें आवश्यक हैं – नवीन कर्मों के आगमन को रोकना तथा संचित कर्मों का नाश। नवीन कर्मों का आगमन संवर से रुक जाता है। संचित कर्मों का नाश करने के लिए तपस्या करनी चाहिए । जैन शास्त्रों में तपस्या के बारह भेद बताए गए हैं। उनमें छः बाह्यतप हैं और छः आभ्यन्तर तप । इनका स्वरूप छठे बोल संग्रह के बोल नं. ४७६ और ४७८ में आ चुका है। गुणस्थान संवर और निर्जरा के द्वारा कर्मों का बोझ जैसे जैसे हलका होता जाता है जीव के परिणाम अधिकाधिक शुद्ध होते जाते हैं। आत्मा उत्तरोत्तर विकसित होता है । आत्मगुणों के इसी विकास-क्रम को गुणस्थान कहते हैं । बौद्धों ने इसकी जगह १. भूमियाँ मानी हैं । गुणस्थान १४ हैं। इनका विस्तृत वर्णन १४ वें बोल संग्रह में दिया जायगा। मोत क्रमिक विकास करता हुआ जीव जब तेरहवें गुणस्थान में पहुँचता है उस समय चार घाती कर्म नष्ट हो जाते हैं । आत्मा के मूल गुणों का घात करने वाले होने से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय घाती कर्म कहे जाते हैं। इनमें पहले मोहनीय का क्षय होता है उसके बाद तीनों का एक साथ । ज्ञानावरणीय के नाश होने पर आत्मा के ज्ञान गुण पर पड़ा हुआ परदा हट जाता है । परदा हटते ही आत्मा अनन्त ज्ञान
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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