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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २०३ तक मनुष्य यह निश्चय नहीं कर लेता कि मैं अमुक पापयुक्त कार्य नहीं करूँगा तब तक उसके लिए उस पाप से होने वाले कर्मबन्ध का द्वार खुला है । अतएव कर्मबन्ध को रोकने के लिए विरति अर्थात् प्रत्याख्यान आवश्यक है। प्रमाद- प्रमाद अर्थात् आत्मविस्मरण । धर्मकार्यों में रुचि न होना, कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य को भूल जाना । कषाय- समभाव की मर्यादा को छोड़ देना। योग- मन, वचन, और काया की प्रवृत्ति । यद्यपि बन्ध के पाँच कारण ऊपर बताए गए हैं इनमें भी कषाय प्रधान है। कर्मप्रकृतियों के बन्धने पर भी उनमें न्यूनाधिक काल तक ठहरने और फल देने की शक्ति कषाय द्वारा ही आती है। वास्तव में देखा जाय तो बन्ध के दो ही कारण हैं। योग और कषाय । योग के कारण आत्मा के साथ ज्ञानादि का आवरण करने वाले कर्मप्रदेशों का सम्बन्ध होता है और कषाय के कारण उनमें ठहरने और फल देने की ताकत आती है। कर्मों को निष्फल करने के लिए कषायों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है। जैसे दीपक बत्ती के द्वारा तेल ग्रहण करके अपनी उष्णता रूप शक्ति से उसे ज्वाला रूप में परिणत कर देता है उसी प्रकार जीव कपाययुक्त मन, वचन और काया से कर्मवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें कर्म अर्थात् तत् तत् फल देने वाली शक्ति के रूप में परिणत कर देता है । कर्म स्वयं जड़ है किन्तु जीव का सम्बन्ध पाकर उनमें फल देने की शक्ति आ जाती है । इस प्रकार कर्मवर्गणा के पुद्गलों का जीव के साथ सम्बन्ध होना बन्ध कहा जाता है ।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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