SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री सेठिया जैन मन्थमाला अपेक्षा छोटे होने से श्रावक के व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं । अणुव्रत भी पाँच हैं। मूल अर्थात् त्याग का प्रथम आधार रूप होने से वे मूलगुण या मूलव्रत कहलाते हैं। मूलगुणों की रक्षा, पुष्टि और शुद्धि के लिए जो व्रत स्वीकार किए जाते हैं, उन्हें उत्तरगुण या उत्तरव्रत कहा जाता है। ऐसे उत्तरवत सात हैं । इनमें तीन गुणव्रत हैं और चार शिक्षाव्रत । जीवन के अन्त में एक और व्रत लिया जाता है जिसे संलेखना कहते हैं । इन का स्वरूप संक्षेप में नीचे लिखे अनुसार है २०० पाँच अणुव्रत प्रत्येक व्यक्ति छोटे अथवा बड़े सूक्ष्म अथवा बादर सब प्रकार के जीवों की हिंसा का त्याग नहीं कर सकता । इसलिए त्रस जीवो की हिंसा का त्याग करना अहिंसाणुव्रत है । इसी प्रकार असत्य, चोरी, कामाचार और परिग्रह का भी अपनी अपनी शक्ति के अनुसार त्याग करना अथवा उन्हें मर्यादित करना क्रम से सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अणुव्रत हैं । तीन गुणवत अपनी त्याग भावना के अनुसार पूर्व पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित करना, उस से बाहर जाकर पाप कार्य का त्याग करना दिक्परिमाणव्रत है । जिन वस्तुओं में बहुत अधिक पाप की सम्भावना हो ऐसे खान, पान, गहने, कपड़े आदि का त्याग करके कम आरम्भ वाली वस्तुओं की यथाशक्ति मर्यादा करना उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत है। अपने भोग रूप प्रयोजन के लिए होने वाले अधर्म व्यापार के सिवाय बाकी के सब पाप कार्यों से निवृत्ति लेना अर्थात्
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy