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________________ १९६ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला दोष कहा जाता है। हिंसा से आत्मा में कठोरता आती है, स्वाभाविक कोमलता नष्ट हो जाती है, जीवन की प्रवृत्ति बाह्यमुखी हो जाती है । इसलिए यह दोष है । मुमुक्षु के लिए इस का त्याग करना आवश्यक है। असत्य का स्वरूप .. 'असदभिधानमनृतम्' असत्कथन को अनृत अर्थात् असत्य कहते हैं । असत्कथन के मुख्य रूप से तीन अर्थ हैं- (१) जो वस्तु सत् अर्थात् विद्यमान हो उसका एक दम निषेध कर देना। (२) एक दम निषेध न करते हुए भी उसका वर्णन इस प्रकार करना जिस से सुनने वाला भ्रम में पड़ जाय । (३) बुरा वचन जिस से सुनने वाले को कष्ट हो या सत्य होने पर भी जिस कथन में दूसरे को हानि पहुँचाने की दुर्भावना हो । __यद्यपि सूत्र में असत्कथन को ही अनृत कहा है, किन्तु मन वचन और काया से असत्य का अर्थ लेने पर असत् चिन्तन असत्कथन और असदाचरण भी ले लिए जाएँगे। किसी के विषय में अयथार्थ या बुरा सोचना, कहना या आचरण करना सभी इस दोष में सम्मिलित हैं। अहिंसा के लक्षण की तरह इस में भी 'प्रमत्तयोगात्' विशेषण समझ लेना चाहिए। किसी वस्तु का दूसरे रूप में प्रतिपादन करना दोष तभी है जब उसमें वक्ता का अभिमाय बुरा हो । अगर परकल्याण की दृष्टि से किसी के सामने असत्य बात कही जाय तो वह द्रव्य रूप में असत्य होने पर भी भाव में असत्य नहीं है। इसी कारण उसे असत्य दोष में नहीं गिना जाता। सत्य व्रत लेने वाले को नीचे लिखी बातों का अभ्यास
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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