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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १९१ कहा जाता है । प्रमाद का अर्थ आलस्य भी है । आध्यात्मिक जगत् में उसी व्यक्ति को जागृत कहा जाता है जो सदा आत्मविकास का ध्यान रक्खे । जिस समय वह कोई ऐसा कार्य कर रहा है जिससे आत्मा का पतन हो उस समय उसे आध्यात्मिक दृष्टि से जागृत नहीं कहा जायगा । वह निद्रित, सोया हुआ, आलसी या प्रमादयुक्त कहा जायगा । इसलिए प्रमत्त योग का अर्थ है मन, वचन या काया का किसी ऐसे कार्य से युक्त होना जिससे आत्मा का पतन हो । धर्मसंग्रह के तीसरे अधिकार में प्रमाद के आठ भेद बताए गए हैं प्रमादोऽज्ञानसंशयविपर्ययरागद्वेषस्मृतिभ्रंशयोगदुष्पणिधानधर्मानादरभेदादष्टविधः। अर्थात् अज्ञान, संशय विपर्यय, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, योगदुष्पणिधान और धर्म में अनादर के भेद से प्रमाद आठ तरह का है। अहिंसा के लक्षण में दूसरा शब्द प्राणव्यपरोपण है। व्यपरोपण का अर्थ है विनाश करना या मारना । प्राण दस हैं-- पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च,उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिक्ताः, तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा॥ अर्थात् पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काया उच्छासनिःश्वास और आयु ये दस प्राण हैं, इनका नाश करना हिंसा है। पाठ प्रकार के प्रमाद में से किसी तरह के प्रमाद वाले योग से दस प्राणों में से किसी प्राण का विनाश करना हिंसा है। अगर कोई किसी के मन का वध करता है तो वह भी हिंसा है। वचन का वध करता है तो वह भी हिंसा है । विचारों पर या भाषण पर नियन्त्रण करना ही मन और वचन का वध है। केवल किसी के साँस को रोक देना ही हिंसा नहीं है । पाँच
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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