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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह है तब तक कोई सच्चा अहिंसक नहीं बन सकता । इस जलन का नाश करने के लिए उसके विरुद्ध प्रमोद रूप भावना बताई गई है। प्रमोद का अर्थ है अधिक गुणवाले को देख कर प्रसन्न होना। उसके गुणों की प्रशंसा तथा आदर करना । सच्चे हृदय से गुणों का आदर करने से वे गुण आदर करनेवाले में भी आ जाते हैं । इस भावना का विषय अधिक गुणी है क्योंकि उसी को देख कर ईर्ष्या होती है। अधिकगुणी से मतलब यहाँ विद्या, तप, यश, धन आदि किसी भी बात में बड़े से है। (३) किसी को कष्ट में पड़ा देख कर जिस व्यक्ति के हृदय में अनुकम्पा नहीं आती, उसका कष्ट दूर करने की इच्छा नहीं होती वह अहिंसाव्रत का पालन नहीं कर सकता। इसका पालन करने के लिए करुणा भावना मानी गई है । इस भावना का विषय दुखी प्राणी हैं क्योंकि दीन दुखी और अनाथ को हो कृपा या मदद की आवश्यकता होती है। (४) हमेशा प्रत्येक स्थान पर प्रवृत्त्यात्मक भावनाओं से ही काम नहीं चलता । अहिंसा आदि व्रतों को निभाने के लिए कई बार उपेक्षाभाव भी धारण करना पड़ता है। इसी लिए माध्यस्थ्य भावना बताई गई है।माध्यस्थ्य का अर्थ है उपेक्षा या तटस्थता। अगर कोई जड़ संस्कार वाला, कुमार्गगामी, अयोग्य व्यक्ति मिल जाय और उसे सुधारने के लिए किया गया सारा प्रयत्न व्यर्थ हो जाय तो उस पर क्रोध न करते हुए तटस्थ रहना ही श्रेयस्कर है । इसलिए माध्यस्थ्य भावना का विषय अविनेय अर्थात् अयोग्य पात्र है। . संवेग और वैराग्य के बिना तो अहिंसा आदि व्रत हो ही नहीं सकते। व्रतों का पालन करने के लिए संवेग और वैराग्य
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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