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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १८१ अपेक्षावाद के इस सिद्धान्त को बौद्ध और वैदिक दार्शनिकों ने भी माना है। बौद्ध दर्शन के 'उदान सुत्त' नामक पाली ग्रन्थ में एक कथा आती है- एक मरे हुए हाथी के पास सात जन्मान्ध पहुँचे । किसी ने उसका पैर पकड़ लिया किसी ने पूंछ, किसी ने कान, किसी ने दांत और किसी ने धड़। जिसने "जिस अङ्ग को पकड़ा उसी को लेकर वह हाथी का वर्णन करने लगा। पैर पकड़ने वाले ने हाथी को स्तम्भ सरीखा बताया पूंछ पकड़ने वाले ने रस्सी सरीखा । इसी प्रकार सभी अन्धे अपनी अपनी अपेक्षा से एक एक बात को पकड़ कर बैठ गए और आपस में विवाद करने लगे। उसी समय एक देखने वाला आया। उसने सब को समझा कर विवाद शान्त किया। यहाँ एकान्तवादियों को अन्धा कहा है । इसी प्रकार ब्राह्मण दर्शनों में अपेक्षावाद का कहीं कहीं जिक्र आता है। लेकिन वे अपने विचारों को स्वयं ही अच्छी तरह नहीं समझ सके हैं । ब्रह्ममूत्र के 'नैकस्मिन्नसंभवात्' सूत्र में तथा उसके शाडूर भाष्य में स्याद्वाद का खण्डन किया गया है किन्तु उससे यही मालूम पड़ता है कि खण्डन कर्ता ने या तो सिद्धान्त को पूरी तरह समझा नहीं है, या समझ कर भी मताग्रहवश वास्तविकता को छिपाया है। प्राचार्य आनन्दशङ्कर बापूभाई ध्रुव के शब्दों में स्याद्वाद का सिद्धान्त बौद्धिक अहिंसा है। अर्थात् बुद्धि या विचारों से भी किसी को बुरा न कहना। स्याद्वाद का यह सिद्धान्त नयों पर आश्रित है। स्याद्वाद का अर्थ है- विरोधी मालूम पड़ने वाली बातों को किसी एक पूर्ण सत्य में सम्भावित करना । अनेकान्त और एकान्त की इसी दृष्टि को सकलादेश और विकलादेश कहते
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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