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________________ १५४ श्री सेठिया जैन प्रन्य माला www ये 'न्यायमालाविस्तर' में बड़े विस्तार से की है। अर्थ लगाने के जो नियम यज्ञ विधान के बारे में बनाए गए हैं उनका प्रयोग अन्य विषयों में भी हो सकता है। उदाहरणार्थ, राजकीय नियम जो शब्द के आधार पर स्थिर हैं इन्हीं नियमों के अनुसार स्पष्ट किए जाते हैं । पूर्वमीमांसा का यह विशेष महत्त्व है। उससे धर्म, आचार, यज्ञ, कानून इत्यादि स्थिर करने में सहायता मिलती है। वास्तव में पूर्वमीमांसा तत्त्वज्ञान की पद्धति नहीं है, यज्ञ और नियम विधान की पद्धति है लेकिन परम्परा से इसकी गणना षड्दर्शन में होती रही है । पूर्वमीमांसा का विषय ऐसा है कि मीमांसकों में मतभेद अवश्यम्भावी था। इसीलिए इनमें भट्ट, प्रभाकर और मुरारि नाम से तीन मत पचलित हैं । मुरारि का मत बहुत कम माना जाता है । भट्ट और प्रभाकर में भी प्रभाकर विशेष प्रचलित है। उत्तरमीमांसा (वेदान्त) उत्तरमीमांसा या वेदान्त के सिद्धान्त उपनिषदों में हैं पर इनका क्रम से वर्णन सब से पहिले बादरायण ने ई०पू० तीसरी चौथी सदी के लगभग वेदान्तमूत्र में किया । उन पर सब से बड़ा भाष्य शंकराचार्य का है । इनके कालनिर्णय के विषय में कई मान्यताएँ हैं । वे सभी मान्यताएँ इन्हें ई० ६ ठी सदी से लेकर हवीं तक बतलाती हैं । वेदान्त के सिद्धान्त पुराण और साधारण साहित्य में बहुतायत से मिलते हैं और उन पर ग्रन्थ आज तक बनते रहे हैं । वेदान्त का प्रधान सिद्धान्त है कि वस्तुतः जगत् में केवल एक चीज है और वह है ब्रह्म। ब्रह्म अद्वितीय है, उसके सिवाय और कुछ नहीं है । तो फिर
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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