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________________ ११६ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक, और जैमिनीय । जिनदत्त और राजशेखर ने भी इन्हीं को माना है। वास्तव में देखा जाय तो भारतीय इतिहास के प्रारम्भ से यहाँ दो संस्कृतियाँ चली आई हैं। एक उनकी जो प्राचीन ग्रन्थों, रूढ़ियों और पुराने विश्वासों के आधार पर अपने मतों की स्थापना करते थे। यक्तिवाद की ओर झकने पर भी प्राचीनता को छोड़ने का साहस न करते थे। दूसरे वे जो स्वतन्त्र युक्तिवाद के आधार पर चलना पसन्द करते थे। आत्मा की आवाज और तर्क ही जिन के लिए सब कुछ थे। इसी आधार पर होने वाली शाखाओं को ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति के नाम से कहा जाता है। इनमें पहिली प्रवृत्तिप्रधान रही है और दूसरी निवृत्तिप्रधान । ब्राह्मण संस्कृति वेद को प्रमाण मान कर चलती है और श्रमण संस्कृति युक्ति को। इन्हीं के कारण दर्शन शास्त्र भी दो भागों में विभक्त हो गया है । कुछ दर्शन ऐसे हैं जो श्रति के सामने युक्ति को अप्रमाण मानते हैं । मन्त्र, ब्राह्मण या उपनिषदों के आधार पर अपने मत की स्थापना करते है । मुख्यरूप से उनकी संख्या छः है- न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त । श्रमण संस्कृति विचारस्वातन्त्र्य और युक्ति के आधार पर खड़ी हुई । आगे चल कर इसकी भी दो धाराएँ हो गई। जैन और बौद्ध । जैन दर्शन ने युक्ति का आदर करते हुए भी आगमों को प्रमाण मान लिया। इसलिए उसकी विचार शृङ्खला एक ही अखण्ड रूप से बनी रही । आचार में मामूली भेद होने पर भी कोई तात्त्विक भेद नहीं हुआ। कुछ बौद्ध आगम को छोड़ कर एक दम युक्तिवाद में उतर
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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