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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १०३ मत को अपना मत मानकर उसी का पूर्वपक्ष करते हुए विवाद करना। (३) समर्थ होने पर अध्यक्ष एवं प्रतिवादी दोनों के प्रतिकूल होने पर भी विवाद करना। (४) अध्यक्ष को प्रसन्न करके विवाद करना। (५) निर्णायकों को अपने पक्ष में मिलाकर विवाद करना । (६) किसी उपाय से निर्णायकों को प्रतिवादीका द्वेषी बनाकर अथवा उन्हें स्वपक्ष ग्राही बनाकर विवाद करना। (ठाणांग ६ सूत्र ५१२) ४९४-छः प्रकार का प्रश्न सन्देह निवारण या दूसरे को नीचा दिखाने की इच्छा से किसी बात को पूछना प्रश्न कहलाता है । इस के छः भेद हैं-- (१) संशयप्रश्न-अर्थ विशेष में संशय होने पर जो प्रश्न किया जाता है वह संशयप्रश्न है। (२) व्युद्ग्राह प्रश्न- दुराग्रह अथवा परपक्ष को दूषित करने के लिए किया जाने वाला प्रश्न व्युद्ग्राह प्रश्न है। (३) अनुयोगी प्रश्न- अनुयोग अर्थात् व्याख्यान के लिये किया जाने वाला प्रश्न अनुयोगी प्रश्न है। (४) अनुलोम प्रश्न- सामने वाले को अनुकूल करने के लिये, 'आप कुशल तो हैं ?' इत्यादि प्रश्न करना अनुलोम प्रश्न है। (५) तथाज्ञान प्रश्न- उत्तरदाता की तरह पूछने वाले को ज्ञान रहते हुए भी जो प्रश्न किया जाता है अर्थात् जानते हुए भी जो प्रश्न किया जाता है वह तथाज्ञान प्रश्न हैं। (६) अतथाज्ञान प्रश्न- तथाज्ञान प्रश्न से विपरीत प्रश्न अतथाज्ञान प्रश्न है अर्थात् नहीं जानते हुए जो प्रश्न किया
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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