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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह आत्मा विकास की ओर बढ़ता है। (२) चतुर्विंशतिस्तव- चौवीस तीर्थंकरों के गुणों का भक्तिपूर्वक कीर्तन करना चतुर्विंशतिस्तव है। ___ इसका उद्देश्य गुणानुराग की वृद्धि है जो कि निर्जरा और आत्मा के विकास का साधन है। (३)वन्दना- मन वचन और शरीर का वह प्रशस्त व्यापार, जिसके द्वारा पूज्यों के प्रति भक्ति और बहुमान प्रगट किया जाता है वन्दना कहलाती है। __वन्दना करने वाले को वन्द्य (वन्दना करने योग्य) और अवन्द्य का विवेक होना चाहिये । वन्दना की विधि और उसके दोषों का भली प्रकार ज्ञान होना चाहिये। मिथ्यादृष्टि और उपयोगशून्य सम्यग्दृष्टि की वन्दना द्रव्य वन्दना है । सम्यग्दृष्टि की उपयोगपूर्वक वन्दना भाव वन्दना है। द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के चारित्र से सम्पन्न मुनि ही वन्दना के योग्य होते हैं । वन्दना का फल बोल नं० ४७५ में बताया जा चुका है। (४) प्रतिक्रमण- प्रमादवश शुभ योग से गिर कर अशुभ योग प्राप्त करने के बाद फिर शुभ योग प्राप्त करना प्रतिक्रमण है। इसी प्रकार अशुभ योग से निवृत्त होकर उत्तरोत्तर शुभ योग में प्रवृत्त होना भी प्रतिक्रमण है । काल के भेद से प्रतिक्रमण तीन प्रकार का है - भूतकाल में लगे हुए दोषों की आलोचना करना, वर्तमान काल में लगने वाले दोषों से संवर द्वारा बचना और प्रत्याख्यान द्वारा भावी दोषों को रोकना।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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