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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह . ८५ (३) वन्दना से गुरु की भक्ति होती है। (४) सब तरह के कल्याण का मूल कारण तीर्थकर भगवान् की आज्ञा का पालन होता है, क्योंकि तीर्थकरों ने धर्म का मूल विनय बताया है। (५) श्रुतधर्म की आराधना होती है, क्योंकि शास्त्रों में वन्दना पूर्वक श्रुत ग्रहण करने की आज्ञा है। (६) अन्तमें जाकर वन्दना से अक्रिया होती है। अक्रिय सिद्ध ही होते हैं और सिद्धि (मोक्ष) वन्दना रूप विनय से क्रमशः प्राप्त होती है। (प्रवचनसारोद्धार वन्दना द्वार ३) ४७६- बाह्य तप छः __ शरीर और कर्मों को तपाना तप है । जैसे अग्नि में तपा हुआ सोना निर्मल होकर शुद्ध होता है उसी प्रकार तप रूप अग्नि से तपा हुआ आत्मा को मल से रहित होकर शुद्ध स्वरूप हो जाता है । तप दो प्रकार का है- बाह्य तप और आभ्यन्तर तप । वाह्य शरीर से सम्बन्ध रखने वाले तप को बाह्य तप कहते हैं। इसके छः भेद हैं(१) अनशन- आहर का त्याग करना अनशन तप है। इस के दो भेद हैं- इत्वर और यावत्कथिक । उपवास से लेकर छः मास तक का तप इत्वर* अनशन है। भक्त परिज्ञा, इङ्गित मरण और पादोपंगमन मरण रूप अनशन यावत्कथिक अनशन है। * प्रवचनसारोद्धार में उत्कृष्ट इत्वर अनशन तप इस प्रकार बताया गया है-भगवान् ऋषभदेव के शासन में एक वर्ष, मध्य के बाईस तीर्थंकरों के शासन में आठ मास और भगवान् महावीर के शासन में ६ मास।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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