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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह viwwwwwwwwwwwwww. ४७४-भाव छः कर्मों के उदय,क्षय,क्षयोपशम या उपशम से होने वाले आत्मा के परिणामों को भाव कहते हैं। इसके छः भेद हैं (१) औदयिक भाव, (२) औपशमिक भाव, (३) क्षायिक भाव,(४) क्षायोपशमिक भाव, (५) पारिणामिक भाव, (६) सान्निपातिक भाव । (१-५) औदयिक से पारिणामिक भाव तक पाँच भावों का स्वरूप पाँचवें बोल संग्रह बोल नं०३८७ में दिया जा चुका है। ( ६ ) सानिपातिक भाव– सान्निपातिक का अर्थ है संयोग। औदयिक आदि पाँच भावों में से दो, तीन, चार या पाँच के संयोग से होने वाला भाव सान्निपातिक भाव कहा जाता है। दो, तीन, चार, या पाँच भावों के संयोग क्रमशः द्विक संयोग, त्रिक संयोग, चतुस्संयोग और पंच संयोग कहलाते हैं। द्विकसंयोग सान्निपातिक भाव के दस भङ्ग हैं । इसी प्रकार त्रिकसंयोग, चतुस्संयोग और पंच संयोग के क्रमशः दस, पाँच और एक भङ्ग हैं। सान्निपातिक भाव के कुल मिलाकर छब्बीस भङ्ग होते हैं। वे इस प्रकार हैं द्विक संयोग के १० भङ्ग (१) औदयिक, औपशमिक । (२) औदयिक, क्षायिक । (३) औदयिक, नायोपशमिक । (४) औदयिक, पारिणामिक । (५) औपशमिक, क्षायिक । (६) औपशमिक, क्षायोपशमिक ।
SR No.010509
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size15 MB
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