SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 357 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह पारंचित दशवा प्रायाचित्त है। इससे बड़ा कोई प्रायश्चित्त नहीं है / इसमें साधु को नियत काल के लिये दोष की शुद्धि पर्यन्त साधुलिङ्ग छोड़ कर गृहस्थ वेष में रहना पड़ता है। (1) साधु जिस गच्छ में रहता है / उसमें फूट डालने के लिये आपस में कलह उत्पन्न करता हो। (2) साधु जिस गच्छ में रहता है। उसमें भेद पड़ जाय इस आशय से, परस्पर कलह उत्पन्न करने में तत्पर रहता हो। (3) साधु आदि की हिंसा करना चाहता हो। (4) हिंसा के लिये प्रमत्तता आदि छिद्रों को देखता रहता हो / (5) बार बार असंयम के स्थान रुप सावद्य अनुष्ठान की पूछताछ करता रहता हो अथवा अंगुष्ठ, कुड्यम प्रश्न वगैरह का प्रयोग करता हो। नोट-अंगुष्ठ प्रश्न विद्या विशेष है / जिसके द्वारा अंगूठे में देवता बुलाया जाता है / इसी प्रकार कूड्यम प्रश्न भी विद्या विशेष है। जिसके द्वारा दीवाल में देवता बुलाया जाता है / देवता के कहे अनुसार प्रश्नकर्ता को उत्तर दिया जाता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सू. 368) १४७-पाँच अवन्दनीय साधुः-जिनमत में ये पांच सापु अवन्दनीय हैं। (1) पासत्थ (2) ओसन्न / (3) कुशील (4) संसक्त / (5) यथाच्छन्द। (1) पासत्थ (पार्वस्थ या पाशत्थ):---जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और प्रवचन में सम्यग उपयोग वाला नहीं है।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy