SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ३३५ (१) प्रस्थापिता:-आरोपिता प्रायश्चित्त का जो पालन किया जाता है वह प्रस्थापिता आरोपणा है। (२) स्थापिता:-जो प्रायश्चित्त आरोपणा से दिया गया है । उस का वैयावृत्त्यादि कारणों से उसी समय पालन न कर आगे के लिये स्थापित करना स्थापिता आरोपणा है। (३) कृत्ला:--दोषों का जो प्रायश्चित्त छः महीने उपरान्त न होने से पूर्ण सेवन कर लिया जाता है और जिस प्रायश्चित्त में कमी नहीं की जाती । वह कृत्या आरोपणा है। (४) अकृत्ला-अपराध बाहुल्य से छः मास से अधिक आरोपण प्रायश्चित्त आने पर ऊपर का जितना भी प्रायश्चित्त है । वह जिसमें कम कर दिया जाता है । वह अकृत्समा प्रारोपणा है। (५) हाड़ाहड़ा--लघु अथवा गुरु एक, दो, तीन आदि मास का जो भी प्रायश्चित्त आया हो, वह तत्काल ही जिसमें सेवन किया जाता है वह हाड़ाहड़ा आरोपणा है । (ठाणांग ५ उद्देशा २ सूत्र ४३३) (समवायांग २८) ३२७-पांच शौच (शुद्धि ): शौच अर्थात् मलीनता दूर करने रूप शुद्धि के पाँच प्रकार हैं। (१) पृथ्वी शौच । (३) तेजः शौच । (४) मन्त्र शौच । (५) ब्रह्म शौच।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy