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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ૨૯૭ और ऐसा करने पर व्रत एक देश से खण्डित होता है। सूई डोरा के न्याय से इन्हें सेवन करने में सर्वथा व्रत भङ्ग हो जाता है। (३) अनङ्ग क्रीडा:-काम सेवन के जो प्राकृतिक अङ्ग हैं। उनके सिवा अन्य अङ्गों से, जो कि काम सेवन के लिए अनङ्ग हैं, क्रीड़ा करना अनङ्ग क्रीड़ा है । स्व स्त्री के सिवा अन्य स्त्रियों के साथ मैथुन क्रिया वर्ज कर अनुराग से उनका आलिङ्गन आदि करने वाले के भी व्रत मलीन होता है । इस लिए वह भी अतिचार माना गया है। (४) परविवाह करणः-अपना और अपनी सन्तान के सिवा अन्य का विवाह करना परविवाह करण अतिचार है। स्वदारासन्तोषी श्रावक को दूसरों का विवाहादि कर उन्हें मैथुन में लगाना निष्प्रयोजन है । इस लिये ऐसा करना अनुचित है । यह ख्याल न कर दूसरे का विवाह करने के लिये उद्यत होने में यह अतिचार है। (५) कामभोगतीवाभिलाष:-पांच इन्द्रियों के विषय रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्ति होना कामभोगतीव्राभिलाष नामक अतिचार है । इस का आशय यह है कि श्रावक विशिष्ट विरति वाला होता है । उसे पुरुषवेद जनित बाधा की शान्ति के उपरान्त मैथुन सेवन न करना चाहिये । जो वाजीकरण आदि औषधियों से तथा कामशास्त्र में बताये हए प्रयोगों द्वारा कामबाघा को अधिक उत्पन्न कर निरन्तर रति-क्रीड़ा के सुख को चाहता है वह वास्तव में
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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