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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह क्रिया के पांच भेद (१) कायिकी। (२) आधिकरणिकी । (३) प्राद्वेषिकी। (४) पारितापनिकी । (५) प्राणातिपातिकी क्रिया । (१) कायिकी--काया से होने वाली क्रिया कायिकी क्रिया कहलाती है। (२) प्राधिकरणिकी-जिम अनुष्ठान विशेष अथवा बाह्य खड्गादि शस्त्र से आत्मा नरक गति का अधिकारी होता है। वह अधिकरण कहलाता है। उस अधिकरण से होने वाली क्रिया प्राधिकरणिकी कहलाती है। (३) प्रादेषिकी-कर्म बन्ध के कारण रूप जीव के मत्सर भाव अर्थात् ईर्षा रूप अकुशल परिणाम को प्रद्वेष कहते हैं। प्रो से होने वाली क्रिया प्राद्वेषिको कहलाती है। (४) पारितापनिकी:-ताड़नादि से दुःख देना अर्थात् पीड़ा पहुँचाना परिताप है । इससे होने वाली क्रिया पारिताप निकी कहलाती है। (५) प्राणातिपातिकी क्रिया: इन्द्रिय आदि प्राण हैं । उनके अतिपात अर्थात् विनाश से लगने वाली क्रिया प्राणातिपातिकी क्रिया है। (ठाणांग २ सूत्र ६०) (ठाणांग ५ सूत्र ४१६) (पन्नबणा पद २२) २६३-क्रिया पाँच: (१) प्रारम्भिकी। (२) पारिग्रहिकी।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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