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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २३६ ही दीक्षा पर्याय पाल कर सिद्ध हो जाता है । यावत् सभी दुःखों का अन्त कर देता है । जैसे गज सुकुमार ने भगवान श्री अरिष्टनेमि के पास दीक्षा लेकर श्मशान भूमि में कायो. त्सर्ग रूप महातप प्रारम्भ किया । और सिर पर रखे हुए जाज्वल्यमान अङ्गारों से उत्पन्न अत्यन्त ताप वेदना को सहन कर अल्प दीक्षा पर्याय से ही सिद्ध हो गए । (३) तीसरी अन्त क्रिया-कोई पुरुष महा कर्म वाला होकर उत्पन्न होता है । वह दीक्षा लेकर यावत् शुभ ध्यान करने वाला होता है। महा कर्म वाला होने से वह घोर तप करता है, एवं घोर वेदना सहता है। इस प्रकार का वह पुरुष दीर्घ दीक्षा पर्याय पाल कर सिद्ध, बुद्ध, यावत् मुक्त होता है । जैसे सनत्कुमार चक्रवर्ती । सनत्कुमार चक्रवर्ती ने दीक्षा लेकर कर्म क्षय करने के लिए घोर तप किया एवं शरीर में पैदा हुए रोगादि की घोर वेदना सही । और दीर्घ काल तक दीक्षा पर्याय पाली । कर्म अधिक होने से बहुत काल तक तपस्या करके मोक्ष प्राप्त किया। (४) चौथी अन्त क्रियाः-कोई पुरुष अल्प कर्म वाला होकर उत्पन्न होता है । वह दीक्षा लेकर यावत् शुभ ध्यान वाला होता है । वह पुरुष न घोर तप करता है न घोर वेदना सहता है । इस प्रकार वह पुरुष अल्प दीक्षा पर्याय पाल कर ही सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त हो जाता है। जैसे मरु देवी माता । मरु देवी माता के कर्म क्षीण प्रायः थे। अतएव विना तप किए, विना वेदना सहे, हाथी पर विराजमान ही सिद्ध होगई।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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