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________________ २३७ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २५३-कर्म की चार अवस्थाएं (१) बन्ध । (२) उदय । (३) उदीरणा । (४) सत्ता । (१) बन्ध-मिथ्यात्व आदि के निमित्त से ज्ञानावरणीय आदि रूप में परिणत होकर कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ दूध पानी की तरह मिल जाना बन्ध कहलाता है । (२) उदय-उदय काल अर्थात् फलदान का समय आने पर कर्मों के शुभाशुभ फल का देना उदय कहलाता है । (३) उदीरणा-अावाध काल व्यतीत हो चुकने पर भी जो कर्म-दलिक पीछे से उदय में आने वाले हैं। उनको प्रयत्न विशेष से खींच कर उदय प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उदीरणा है। ____ बंधे हुए कर्मों से जितने समय तक आत्मा को आबाधा नहीं होती अर्थात् शुभाशुभ फल का वेदन नहीं होता उतने समय को आबाधा काल समझना चाहिए। (४) सत्ता-बंधे हुए कर्मों का अपने स्वरूप को न छोड़ कर आत्मा के साथ लगे रहना सत्ता कहलाता है। (कर्मग्रन्थ भाग २ गाथा १) २५४-अन्तक्रियाएं चार कर्म अथवा कर्म कारणक भव का अन्त करना अन्तक्रिया है। यों तो अन्तक्रिया एक ही स्वरूप वाली होती है। किन्तु सामग्री के भेद से चार प्रकार की बताई
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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