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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २३५ उपशमनोपक्रम हैं । इसमें आवर्तन, उद्वर्तन और संक्रमण ये तीन करण होते हैं। (४) विपरिणामनोपक्रम-सत्ता, उदय, क्षय, क्षयोपशम, उद्वर्तना, अपवर्तना आदि द्वारा कर्मों के परिणाम को बदल देना विपरिणामना है । अथवा गिरिनदीपाषाण की तरह स्वाभाविक रूप से या द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि से अथवा करण विशेष से कर्मों का एक अवस्था से दूसरी अवस्था में बदल जाना विपरिणामना है । इसका उपक्रम (आरम्भ) विपरिणामनोपक्रम है। (ठाणांग ४ सूत्र २६६) २५०-संक्रम ( संक्रमण ) की व्याख्या और उसके भेदः जीव जिस प्रकृति को बांध रहा है। उसी विपाक में वीर्य विशेष से दूसरी प्रकृति के दलिकों ( कर्म पुद्रलों) को परिणत करना संक्रम कहलाता है। (ठाणांग ४ सूत्र २६६) जिस वीर्य विशेष से कर्म एक स्वरूप को छोड़ कर दूसरे सजातीय स्वरूप को प्राप्त करता है। उस वीर्य विशेष का नाम संक्रमण है। इसी तरह एक कर्म प्रकृति का दूसरी सजातीय कर्म प्रकृति रूप बन जाना भी संक्रमण है। जैसे मति ज्ञानावरणीय का श्रुत ज्ञानावरणीय अथवा श्रुत ज्ञानावरणीय का मति ज्ञानावरणीय कर्म रूप में बदल जाना ये दोनों कर्म प्रकृतियों ज्ञानावरणीय कर्म के भेद होने से आपस में सजातीय हैं । . (कर्म ग्रन्थ भाग २)
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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