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________________ २३० श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला जगन् के जो प्राणी विपरीत वृत्ति वाले हैं । उन्हें मुधारने के लिए प्रयत्न करना मानव कर्तव्य है । ऐमा करने से हम उनका ही सुधार नहीं करते बल्कि उनके कुमार्गगामी होने से उत्पन्न हुई अव्यवस्था एवं अपने साथियों की असुविधाओं को मिटाते हैं। इसके लिये प्रत्येक मनुष्य को सहनशील बनना चाहिए। कुमार्मगामी पुरुष हमारी सुधार भावना को विपरीत रूप देकर हमें भला बुग कह सकता है। हानि पहुँचाने का प्रयत्न भी कर सकता है । उस समय सहनशीलता धारण करना सुधारक का कर्तव्य है । यह सहनशीलता कमजोरी नहीं किन्तु आत्म-बल का प्रकाशन है। उस समय यह सोच कर सुधारक में सुधार भाव और भी ज्यादह दृढ़ होना चाहिए कि जब वह अपने बुरे स्वभाव को नहीं छोड़ता है । तब मैं अपने अच्छे स्वभाव को क्यों छोड़ दें ? यदि सुधारक सहनशील न हुआ तो वह अपने उद्देश्य से नीचे गिर जायगा । पाप से घृणा होनी चाहिए, पापी से नहीं। इस लिए घृणा योग्य पाप को दूर करने का प्रयत्न करना, परन्तु पापी को किसी प्रकार कष्ट न पहुँचाना चाहिए। मलीन वस्त्र की शुद्धि उसको फाड़ देने से नहीं होती, परन्तु पानी द्वारा कोमल करके की जाती है। इसी तरह पापी का सुधार कोमल उपायों से करना चाहिए । कठिन उपायों से नहीं । यदि कठोर उपाय का आश्रय लेना ही पड़े तो वह कठोरता बाह्य होनी चाहिए । अन्तर में तो कोमलता ही रहनी चाहिए । इस
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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