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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २२३ ज्ञान प्रायश्चित्त:: -- पाप को छेदने एवं चित्त को शुद्ध करने वाला होने से ज्ञान ही प्रायश्चित्त रूप है । अतः इसे ज्ञान प्रायश्चित्त कहते हैं । अथवा ज्ञान के अतिचारों की शुद्धि के लिए जो आलोचना आदि प्रायश्चित्त कहे गये हैं, वह ज्ञान प्रायश्चित है । इसी प्रकार दर्शन और चारित्र प्रायश्चित्त का स्वरूप भी समझना चाहिये । व्यक्तकृत्यप्रायश्चितः -- गीतार्थ मुनि छोटे बड़े का विचार कर जो कुछ करता है, वह सभी पाप विशोधक है । इस लिये व्यक्त अर्थात् गीतार्थ का जो कृत्य है, वह व्यक्त कृत्य प्रायश्चित्त है । ( ठाणांग ४ सूत्र २६३ ) २४५ (ख) प्रायश्चित के अन्य प्रकार से चार भेद: • N (१) प्रतिसेवना प्रायश्चित्त । (२) संयोजना प्रायश्चित्त । (३) रोपण प्रायश्चित | (४) परिकुञ्चना प्रायश्चित्त । (१) प्रतिसेवना प्रायश्चित्तः - प्रतिषिद्ध का सेवन करना अर्थात् कृत्य का सेवन करना प्रतिसेवना है। इसमें जो बालोचन आदि प्रायश्चित्त है, वह प्रतिसेवना प्रायश्चित्त है । 1 (२) संयोजना प्रायश्चित: - एक जातीय अतिचारों का मिल जाना संयोजना है । जैसे कोई साधु शय्यातर पिएड लाया, वह भी गीले हाथों से, वह भी सामने लाया हुआ । और वह भी आधाकर्मी । इसमें जो प्रायश्चित्त होता है । वह संयोजना प्रायश्चित है । (३) आरोपणा प्रायश्चित्त - एक करने पर बार बार उसी अपराध का प्रायश्चित्त अपराध को सेवन करने
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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