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________________ २१२ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला क्रोध न करना, उदय में श्राये हुए क्रोध को दबाना इस प्रकार क्रोध का त्याग क्षमा है । मान न करना, उदय में आये हुए मान को विफल करना, इस प्रकार मान का त्याग मार्दव है । माया न करना:- उदय में आई हुई माया को विफल करना, रोकना । इस प्रकार माया का त्याग - ग्रार्जव (सरलता) है लोभ न करना:- उदय में आये हुए लोभ को विफल करना ( रोकना) । इस प्रकार लोभ का त्याग - मुक्ति (शौच निर्लोभता) है। ( ठाणांग ४ सूत्र २४७ ) (आवश्यक अध्ययन ४ ) ( उवचाई सूत्र ३० ) २२८ - शुक्ल ध्यानी की चार भावनाएं:(१) अनन्त वर्तितानुप्रेक्षा (३) शुभानुप्रेक्षा (२) विपरिणामानुप्रेक्षा । (४) पायानुप्रेक्षा । (१) अनन्त वर्तितानुप्रेक्षा::-भव परम्परा की अनन्तता की भावना करना -- जैसे यह जीव अनादि काल से संसार में चक्कर लगा रहा है। समुद्र की तरह इस संसार के पार पहुंचना, उसे दुष्कर हो रहा है । और वह नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव भवों में लगातार एक के बाद दूसरे में विना विश्राम के परिभ्रमण कर रहा है । इस प्रकार की भावना अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा है ।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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