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________________ २०७ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (२) पृच्छना--सूत्र आदि में शङ्का होने पर उसका निवारण करने के लिए गुरु महाराज से पूछना पृच्छना है। (३) परिवर्तना-पहले पढ़े हुए सूत्रादि भूल न जाएं इस लिए तथा निर्जरा के लिए उनकी आवृत्ति करना, अभ्यास करना परिवर्तना है। अनुप्रेक्षा--सूत्र अर्थ का चिन्तन एवं मनन करना अनुप्रेक्षा है। (ठाणांग ४ सूत्र २४७) २२३-धर्मध्यान की चार भावनाएं: (:) एकत्व भावना । (२) अनित्यत्व भावना । (३) अशरण भावना। (४) संसार भावना । (१) एकत्व भावना-" इस संसार में मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और न मैं ही किसी का हूँ"। ऐसा भी कोई व्यक्ति नहीं दिखाई देता जो भविष्य में मेरा होने वाला हो अथवा मैं जिस का बन सकूँ" । इत्यादि रूप से आत्मा के एकत्व अर्थात् असहायपन की भावना करना एकत्व भावना है। (२) अनित्य भावना-"शरीर अनेक विघ्न बाधाओं एवं रोगों का स्थान है । सम्पत्ति विपत्ति का स्थान है । संयोग के साथ वियोग है। उत्पन्न होने वाला प्रत्येक पदार्थ नश्वर है । इस प्रकार शरीर, जीवन तथा संसार के सभी पदार्थों के अनित्य स्वरूप पर विचार करना अनित्यत्व भावना है। (३) अशरण भावना-जन्म, जरा, मृत्यु के भय से पीड़ित, व्याधि एवं वेदना से व्यथित इस संसार में आत्मा का
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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