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________________ [१७] तिविहे भगवया धम्मे पएणते तंजहाः-सुअधिज्झिते सुज्झा तिते सुतवरिसते । जया सुअधिज्झितं भवति तदा सुज्झातियं भवति जया सुज्झातियं भवति तदा सुतवस्सियं भवति । से सुअधिज्झिते सुज्झातिते सुतवसिते सुतक्खातेणं भगवया धम्मे पएणत्ते । (सूत्र २१७) इस सूत्र का यह भाव है कि श्री भगवान ने धर्म तीन प्रकार से वर्णन किया है । जैसे कि भली प्रकार से पठन करना, फिर उसका ध्यान करना, फिर तप करना अर्थात् आचरण करना । क्योंकि जब भली प्रकार से गुरु आदि के समीप पठन किया होता है तव हो सुध्यान हो सकता है । मुध्यान होने पर ही फिर भली प्रकार से आचरण किया जा सकता है । अतः पहले पठन करना फिर मनन करना और फिर आचरण करना। यही तीन प्रकार से श्री भगवान ने धर्म वर्णन किया है। इससे भली भांति सिद्ध हो जाता है कि श्री भगवान का प्रथम धर्म अध्ययन करना ही है । सो सम्यग् सूत्रों का अध्ययन किया हुआ आत्म विकास का मुख्य हेतु होता है। यह प्रस्तुत ग्रन्थ विद्यार्थियों के लिये उपयोगी होने पर भी विद्वानों के लिये भी परमोपयोगी है और इसमें बहुत से बोल उपादेय रूप में भी संग्रहीत किये गए हैं । जैसे कि श्रावक की तीन अनुप्रेक्षाएं । स्थानाङ्ग सूत्र तृतीय स्थान के चतुर्थ उद्देश के २१० वें सूत्र में वर्णित की गई हैं। जैसे कि: तिहिं ठाणेहिं समणोवासते महानिजरे महापजवसाणे भवति । तंजहाः-(१) कयाणमहमप्पं वा बहुयं वा परिग्गहं परिचइरसामि (२) कया णं अहं मुंडे भवित्ता आगारातो अणगारितं पव्वइस्सामि (३) कया णं अहं अपच्छिम मारणंतियं संलेहणा भूसणा झूसिते भत्तपाण पडियातिक्खते पाओवगते कालं अणवखमाणे विहरिरसामि ।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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