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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १६६ प्राण वध करना अथवा उपरोक्त व्यापार न करते हुए भी क्रोध के वश होकर निर्दयता पूर्वक निरन्तर इन हिंसाकारी व्यापारों को करने का चिन्तन करना हिंमानुबन्धी रौद्र ध्यान है। मृषानुबन्धी:--मायावी-दूमरों को ठगने की प्रवृत्ति करने वाले तथा छिप कर पापाचरण करने वाले पुरुषों के अनिष्ट सूचक वचन, असभ्य वचन, अमत् अर्थ का प्रकाशन, मत् अर्थ का अपलाप, एवं एक के स्थान पर दूसरे पदार्थ आदि का कथन रूप अमत्य वचन, एवं प्राणियों के उपधात करने वाले वचन कहना या कहने का निरन्तर चिन्तन कनग मृषानुवन्धी रौद्रध्यान है । चार्यानुबन्धीः-तीत्र क्रोध एवं लोभ से व्यग्र चिन वाले पुरुप की प्राणियों के उपघातक, अनार्य काम जैसे-पर द्रव्य हरण आदि में निरन्तर चिन वृत्ति का होना चौर्यानुबन्धी रौद्र ध्यान है। मंरक्षणानुबन्धी:-शब्दादि पांच विषय के साधन रूप धन की रक्षा करने की चिन्तना करना, एवं न मालूम दुसरा क्या करेगा, इस आशंका से दृमरों का उपघात करने की कपायमयी चित वृत्ति रखना संरक्षणानुबन्धी गेंद्रध्यान है। हिंसा, मृषा, चौर्य, एवं संरक्षण स्वयं करना दूसरों से कराना, एवं करते हुए की अनुमोदना (प्रशंसा) करना इन तीनों कारण विषयक चिन्तना करना रौद्रध्यान है। राग
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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