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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १६३ अर्थात्ः -- भगण, जगण और सगण, आदि मध्य और अव सान (अन्त) में गुरु होते हैं । और यगण, रगण और तगण आदि मध्य अवसान में लघु होते हैं । मगरण सर्वगुरु और नगर सर्व लघु होता है । पिङ्गल शास्त्र के अनुसार इन आठ गणों में यगण मगण, भगण और नगण ये शुभ और जगण, रगण, सगण और तगण ये अशुभ माने गये हैं । ( सरल पिङ्गल ) २१४--चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं: विषय को प्राप्त करके अर्थात् विषय से सम्बद्ध हो कर उसे जानने वाली इन्द्रियां प्राप्यकारी कहलाती हैं । प्राप्यकारी इन्द्रियां चार हैं: (१) श्रोत्रेन्द्रिय (३) रसनेन्द्रिय (२) घ्राणेन्द्रिय । (४) स्पर्शनेन्द्रिय । ( ठारणांग ४ सूत्र ३३६ ) नोट- वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक और सांख्य दर्शन सभी इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानते हैं । बौद्ध दर्शन में श्रत्र और चक्षु अप्राप्यकारी, और शेष तीन इन्द्रियों प्राप्यकारी मानी गई हैं । जैन दर्शन के अनुसार चतु प्रा प्यकारी और शेष चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं । (रत्नाकरावतारिका परिच्छेद २) २१५: - ध्यान की व्याख्या और भेद:ध्यान:——एक लक्ष्य पर चित्त को एकाग्र करना ध्यान है। अथवा छद्मस्थों का अन्तर्मुहूर्त परिमाण एक वस्तु में चित्त
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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