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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १५६ संशय को दूर कर एक ओर झुकता है। परन्तु इतना कमजोर होता है कि ज्ञाता को इससे पूर्ण निश्चय नहीं होता और उसको तद्विषयक निश्चयात्मक ज्ञान की आकांक्षा बनी ही रहती है। अवायः ईहा से जाने हुए पदार्थों में 'यह वही है, अन्य नहीं है' ऐसे निश्चयात्मक ज्ञान को अवाय कहते है । जैसे यह मनुष्य ही है । धारणा:--अवाय से जाना हुआ पदार्थों का ज्ञान इतना दृढ़ हो जाय कि कालान्तर में भी उसका विस्मरण न हो तो उसे धारणा कहते हैं। (ठाणांग ४ सूत्र ३६४) २०१ -बुद्धि के चार भेद (१) औत्पातिकी (२) वैनयिकी । (३) कार्मिकी (४) पारिणामिकी । श्रोत्पातिकी:-नटपुत्र रोह की बुद्धि की तरह जो बुद्धि विना देखे सुने और सोचे हुये पदार्थों को सहसा ग्रहण करके कार्य को सिद्ध कर देती है । उसे औत्पातिकी बुद्धि कहते हैं । ( नदी सूत्र की कथा) वैनयिकी:-नैमित्तिक सिद्ध पुत्र के शिष्यों की तरह गुरुओं की सेवा शुश्रूषा से प्राप्त होने वाली बुद्धि वैनयिकी है। कार्मिकी:-कर्म अर्थात् सतत अभ्यास और विचार से विस्तार को प्राप्त होने वाली बुद्धि कार्मिकी है। जैसे सुनार, किसान आदि कर्म करते करते अपने धन्धे में उत्तरोत्तर विशेष दक्ष हो जाते हैं।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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