SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १५५ दान के प्रभाव से धन्नाजी और शालिभद्रजी ने खूट लक्ष्मी पाई और भोग भोगे । शालिभद्रजी सर्वार्थसिद्धसे आकर सिद्धि ( मोक्ष ) पावेंगे और धन्नाजी तो सिद्ध हो चुके । यह जान कर प्रत्येक व्यक्ति को सुपात्र दान आदि दान धर्म का सेवन करना चाहिए । २ - शील (ब्रह्मचर्य) :- दिव्य एवं औदारिक कामों का तीन करण और तीन योग से त्याग करना शील है । अथवा मैथुन का त्याग करना शील है । शील का पालन करना शील धर्म है । शील सर्व विरति और देश विरति रूप से दो प्रकार का है । देव मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन का सर्वथा तीन करण, तीन योग से त्याग करना सर्व विरति शील है । स्वदार संतोष और परस्त्री विवर्जन रूप ब्रह्मचर्य एक देश शील है । शील के प्रभाव से सुदर्शन सेठ के लिए शूली का सिंहासन हो गया । कलावती के कटे हुए हाथ नवीन उत्पन्न होगये । इस लिए शुद्ध शील का पालन करना चाहिये । ३- तपः- जो आठ प्रकार के कर्मों एवं शरीर की सात धातुओं को जलाता है । वह तप है । तप बाह्य और आभ्यन्तर रूप से दो प्रकार का है । अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता ये ६ बाह्य तप हैं । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग ये ६ आभ्यन्तर तप हैं । (भगवती शतक २५ उद्देशा ७) (उत्तराध्यन अध्ययन ३० )
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy