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________________ १५० श्री सैठिया जैन ग्रन्थमाला" लोक में जीवों का गमनागमन आदि बातों का मेल नहीं खाता। (३) कर्मवादी:-जो आत्मवादी और लोकवादी है, वही कर्मवादी है । ज्ञानावरणीय प्रादि कर्मों का अस्तित्व" मानने वालो कर्मवादी कहलाता है। उसके अनुसार आत्मा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग से गति, शरीर आदि के योग्य कर्म बाँधता है । और फिर म्याकत कर्मानुसार भिन्न २ योनियों में उत्पन्न होता है । यदृच्छा, नियति और ईश्वर जगत् की विचित्रता करने वाले हैं और. जगत् चलाने वाले हैं। ऐसा मानने वाले यदृच्छा, नियति और ईश्वरवादी के मतों को कर्मवादी असत्य समझता है। . .. (४) क्रियावादी:-जो कर्मवादी है वही क्रियावादी है । अर्थात् कर्म के कारण भूत आत्मा के व्यापार यानि क्रिया को मानने वाला है । कर्म कार्य है । और कार्य का कारण है योग। अर्थात् मन, वचन और काया का व्यापार । इस लिए जो कर्म रूप कार्य को मानता है । वह उसके कारण रूप, क्रिया को भी मानता है । सांख्य. लोग आत्मा को निष्क्रिय अर्थात् क्रिया रहित मानते हैं। वह मत, क्रियावादियों के मतानुसार अप्रमाणिक है। जा. .. (आचारांग २ श्रुतस्कन्ध १ अध्ययन १ उदेशा १ को टीका) १६३-शूर, पुरुष के चार प्रकार:-. - (१) क्षमा शूर (२), तप,शूर। . . . " (३) दानं शूर (४) युद्ध शूर।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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