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________________ ६६ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला साधु महात्मा: - ज्ञान दर्शन चारित्र रूप भावों की उत्कृष्टता की अपेक्षा लोकोत्तम हैं— पशमिक, क्षायोपशमिक, और क्षायिक इन भावों की अपेक्षा केवली प्ररूपित धर्म भी लोकोत्तम है । सांसारिक दुःखों से त्राण पाने के लिए सभी आत्मा उक्त चारों का आश्रय लेते हैं । इसलिए वे शरण रूप हैं । बौद्ध साहित्य में बुद्ध धर्म और संघ शरण रूप माने गये हैं । यथा: "अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवजामि । साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पवजामि | इस पाठ जैसा ही बौद्ध साहित्य में भी पाठ मिलता है। यथा: --- बुद्धं सरणं गच्छामि, धम्मं सरणं गच्छामि, संघ सरणं गच्छामि । ( हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन पृष्ठ ५६६ ) १२६ (ख.) अरिहन्त भगवान् के चार मूलातिशय (१) पायापगमातिशय । (२) ज्ञानातिशय । (३) पूजातिशय । (४) वागतिशय । अपायापगमातिशय- अपाय अर्थात् अठारह दोष एवं विघ्न बाधाओं का सर्वथा नाश हो जाना अपायापगमातिशय है ।
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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