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________________ ३६ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला का यह कहना है कि अविरत, देशविरत, प्रमत्त साधु, और अप्रमत्त साधु, इनमें से कोई भी इस श्रेणी को कर सकता है। कर्मग्रन्थ के मत से आत्मा एक भव में उत्कृष्ट दो बार उपशम श्रेणी करता है और मत्र भवों में उत्कृष्ट चार बार । कर्मग्रन्थ का यह भी मत है कि एक बार जिस जीव ने उपशम श्रेणी की है । वह जीव उसी जन्म में क्षपकश्रेणी कर मुक्त हो सकता है। किन्तु जिसने एक भव में दो बार उपशम श्रेणी की है वह उसी भव में क्षपकश्रेणी नहीं कर सकता है । सिद्धान्त मत से तो जीव एक जन्म में एक ही श्रेणी करता है । इसलिए जिसने एक बार उपशम श्रेणी की है वह उसी भव में क्षपक श्रेणी नहीं कर सकता । (कर्मग्रन्थ दूसरा भाग) (विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२८४) (लोक प्रकाश तीसरा सर्ग ११६९ से १२१५) (आवश्यक मलयगिरि गाथा ११६ से १२३) (अर्द्ध मागधी कोप दूसरा भाग) तपक श्रेणी:--आत्मविकास की ओर अग्रगामी जीवों के सर्वथा मोह को निर्मूल करने के क्रमविशेप को क्षपकश्रेणी कहने हैं । आपकश्रेणी में मोहक्षय का क्रम यह है: सर्व प्रथम आत्मा अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्टय का एक साथ क्षय करता है । इसके बाद अनन्तानुबन्धी कषाय के अवशिष्ट अनन्त भाग को मिथ्यात्व में डाल कर दोनों का एक साथ क्षय करता है। इसी तरह सम्यग मिथ्यात्व
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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